
वैसे तो बस्तर में लगभग रोज़ ही, यहां चल रही हिंसा के कारण हुई मौतों की खबरें आती हैं, पर पिछले माह आई दो हत्याओं की खबरों को मैंने थोड़ी गहराई से देखने का प्रयास किया. पहली खबर छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले से आई. 26 वर्षीय मुचाकी दुला को माओवादियों ने मुखबिर कहकर मार दिया था. दुला कोंटा ब्लॉक के कोर्रापाड पंचायत के गोड्डलगुडा गांव में रहते थे.
उसके परिवार वालों ने बताया “दुला कुछ दिन पहले तेलंगाना में सरपाका के पास एक काग़ज़ फ़ैक्ट्री में बग़ल के गांव रामाराम के वेट्टी मुकेश के साथ मज़दूरी करने गया था. ठेकेदार ने काम खतम होने पर बोला उसके पास अभी पैसे नहीं है और घर वापस जाने के लिए थोड़े पैसे दिए. दुला पहले भी उनके यहां काम कर चुका है उसने बोला वह बाद में दुला के हाथ मुकेश का पैसा भिजवा देगा. ठेकेदार ने दुला को पैसे नहीं दिए पर मुकेश को शक है कि दुला ने उसके पैसे खा लिए. परिवार वालों का आरोप है कि ग़ुस्से में उसने माओवादियों को यह चुग़ली कर दी कि दुला पुलिस की मुखबिरी करता है.”
क्या आपने पुलिस में इसकी शिकायत की, पूछने पर उन्होंने बताया “पुलिस मारी होती तो शिकायत कर सकते है पर माओवादी के ख़िलाफ़ शिकायत करके और परेशानी क्यों मोल लेना?” दुला का आधा परिवार सलवा जुडुम के समय भागकर आंध्रप्रदेश चला गया था, वे अब भी वहीं रहते हैं, उनकी मदद से हर साल दुला आंध्र या तेलंगाना में मज़दूरी करने जाता था. उसके बड़े भाई ऊँगा याद करते हैं सलवा जुडुम शुरू होने के बाद 2005 में हम लोग गांव छोड़ कर भाग गए कुछ आंध्र आए कुछ सलवा जुडुम कैम्प में.
उसके बाद, एक दिन जब हम सभी यह सोचकर कि हम लोगों ने साल भर से अपने ग्राम देवता की पूजा नहीं की है, गांव वापस गए, तो 50-60 माओवादियों ने घेरकर 7 लोगों को मार डाला था. उस दिन गांव के सलवा जुडुम कैम्प में गए लोग भी हमारे साथ थे. माओवादियों का ग़ुस्सा सलवा जुडुम कैम्प गए लोगों पर ही था.सलवा जुडुम खतम होने के बाद अब बहुत से लोग गांव वापस चले गए हैं पर हमने दुला को बार बार गांव वापस ना जाने को कहा था.
इसके पहले हमारे गांव में हिंसा की एक ही घटना हुई थी जब माओवादियों ने हमारे पटेल ( प्रमुख) को मार दिया था और उनके पूरे परिवार को भी गांव से भगा दिया था. हमारे आसपास के बहुत से गांवों में पुलिस और सलवा जुडुम ने बहुत से लोगों को मारा और घर जलाया था, पर हमारे गांव में सलवा जुडुम ने कुछ नहीं किया था. दुला के मौत की खबर अख़बार में नहीं छपी .
दूसरे मौत की खबर मैंने अख़बार में पढ़ी जहां परिवार जनों के अनुसार पुलिस के कुछ जवानों ने वेको पाइके नाम की एक 18 साल की आदिवासी लड़की को घर से उठाकर पहले बलात्कार किया फिर उसे मार डाला. दूसरे दिन पुलिस ने यह खबर चलवाई थी कि माओवादियों से हुए एक मुठभेड़ में डीआरजी ( डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड) के जवानों ने 2 लाख के इनामी नक्सली को मार गिराया है.
निरम गांव छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले के चिंगेर पंचायत में आता है उसके सरपंच ने अख़बारों को बताया था कि पुलिस की कहानी मनगढ़ंत है और ऐसी कोई मुठभेड़ नहीं हुई. आसपास के और सरपंचों ने भी उसकी पुष्टि की.पुलिस ने कहा पाइके मुठभेड़ में ही मारी गई थी और मेडिकल जांच में रेप का ज़िक्र नहीं था.
सरपंच रामलाल नेताम ने मुझे बताया मैं खुद माओवादियों के डर से गांव में नहीं रहता पर जिन लोगों ने पाइके को मारा वो मेरे ही पंचायत के पल्लेवाया गांव के लड़के और लड़कियाँ हैं वे खुद भी माओवादी नहीं थे पर सरेंडर करने पर पैसा मिलता है और कभी कभी नौकरी भी मिल जाती है तो उन लोगों ने सरेंडर किया था.
उन लोगों पर बहुत दबाव था कि उनको और लोगों को सरेंडर करवाना है और वे बार बार पाइके पर दबाव डाल रहे थे, लक्ष्मण उनका नेता है. पाइके जब माओवादी आते थे तो उनको मदद करती थी, ऐसे हमारे यहां 5-6 लोग हैं, पाइके पहले माओवादियों के साथ भी थोड़े समय थी . हमारे गांव के 10 लोग अभी जेल में हैं उनको पुलिस ने जब वे बाज़ार करने गए तब पकड़ लिया था उनमें से भी कोई माओवादी नहीं था, 5-6 लोग इसके पहले जेल से छूटे हैं वे भी बेकार में जेल गए थे.
वहाँ की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सुनीता खालखो ने बताया “निरम सलवा जुडुम के पहले एक बड़ा गांव था . यहां 100 से अधिक घरों की बस्ती थी पर अब 70 से अधिक परिवार सलवा जुडुम के दबाव और माओवादियों के डर से कैम्पों में और इधर उधर रहते हैं. पूरा गांव बिखर गया है .सलवा जुडुम के बाद हमारे गांव में हिंसा की यह पहली घटना है जबकि आसपास के गाँवों में दोनों पक्षों से हिंसा की बहुत सी घटनाएँ हुई हैं”.
पाइके की 10 जून को शादी होने वाली थी. दुला मल्कानगिरी से पिछले महीने ही एक लड़की पकड़ कर लाया था. उसके परिवार वालों ने बताया, “उनकी शादी अभी नहीं करा पाए थे, लड़की अब वापस उड़ीसा चली गई है. छत्तीसगढ़ में हमारे मूल गांव वाले हमें आंध्रप्रदेश से वापस बुलाते हैं, हमें मालूम है पुलिस में केस करने पर पैसे भी मिलेंगे पर जान नहीं बचेगी तो पैसे का क्या करेंगे?
छत्तीसगढ़ की पुलिस कहती है कि पिछले 20 सालों में माओवादियों ने 1769 लोगों को मुखबिर कहकर मार दिया है पर उस सूची में दुला का नाम नहीं जुड़ेगा. स्थानीय कहते हैं अधिकतर परिवार माओवादी से हत्या के बाद पुलिस के पास नहीं जाते.
सरकार के अनुसार पिछले 20 सालों में यहां विभिन्न पक्षों द्वारा माओवादी सहित पाइके जैसे 9000 से अधिक ग़ैर सैनिक मारे गए हैं. पुलिसिया हिंसा की खबरें माओवादियों की मदद से अक्सर बाहर आ जाती हैं पर माओवादी हिंसा की कहानियाँ अक्सर बाहर नहीं आ पाती .
प्रश्न है क्या पाइके और दुला जैसे लोगों का मरना ज़रूरी है? क्या उनको मारने वालों या मारने को मजबूर करने वालों को कभी सजा मिल सकेगी? क्या उनकी मौत से “बेहतर दुनिया” बनाने का रास्ता और साफ़ होगा जैसा उनको मारने वाले दोनों पक्षों का दावा है